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४ जून, १९५८
''शुरूमें आत्मा और आध्यात्मिकताका यह सत्य मनके लिये स्वयं- सिद्ध नहीं होता । मनुष्यको मनके द्वारा अपनी आत्माका पता लगता है कि वह कोई ऐसी चीज है जो उसके शरीरसे भिन्न है, जो उसके सामान्य मन और प्राणके ऊपर है लेकिन उसे उसका कोई स्पष्ट संवेदन नहीं होता, केवल अपनी प्रकृतिपर पड़नेवाली कुछ प्रभावोंके प्रतीति होती है । चूंकि थे प्रभाव मनोमय और प्राणमय रूप लेते हैं इसलिये इनमें दृढ और तीक्ष्ण भेद नहीं किया जा सकता । अंतरात्माका प्रत्यक्ष बोध स्पष्ट और सुनिश्चित स्वतंत्रता नहीं प्राप्त करता । वास्तवमें बहुधा मानसिक और प्राणिक भागोंपर चैत्यके दबावके आधे प्रभावोंको, मानसिक अभीप्सा और प्राणिक कामनाओंकी मिली- जुली रचनाको भूलसे अंतरात्मा मान लिया जाता है, ठीक उसी तरह जैसे पृथक् करनेवाले अहंकारको आत्मा मान लिया जाता है, हालांकि अपने सच्चे रूपमें आत्मा सार रूपसे विश्वगत और व्यक्तिगत दोनों होती है । इसी तरह किसी प्रकारके दृढ या उच्च विश्वास या आत्मोत्सर्ग या परहितकामनाकी उत्तेजनासे प्रेरित मानसिक अभीप्सा और प्राणिक उत्साह और उत्कंठाके मिश्रणको भूलसे आध्यात्मिकता मान लिया जाता है । परंतु यह अस्पष्टता और उलझनें विकासके इस अस्थायी चरणमें अनिवार्य है क्योंकि अज्ञान ही इसका आरंभ-बिंदु है और हमारी पहली प्रकृतिका पूरा चिह्न हैं । इसलिये विकासको एक उपार्जित अनुभव या स्पष्ट ज्ञानके बिना अपूर्ण अंतर्भासिक प्रत्यक्ष दर्शन
३०९ ओर सहज-प्रेरणा या खोजसे शुरू करना पड़ता है । यहांतक कि हवे रचनाएं भी जो प्रत्यक्ष दर्शन या प्रेरणाओंके पहले प्रभाव हैं या आध्यात्मिक विकासकी सूचक हैं, वे भी अप्रतिवार्य रूपमें अघूरी और काम-चलाऊ होनी चाहिये । लेकिन इस प्रकार उत्पन्न भूल सच्चे बोधके रास्तेमें बहुत बड़ बाधाके कप- में आती है और इसलिये इस बातपर जोर देना आवश्यक है कि आध्यात्मिकता उच्च बौद्धिकता नहीं है, आदर्शवाद नहीं है, मनका नैतिक मोड या नैतिक शुद्धता या तपस्या नहीं है । बह धार्मिकता या उग्र और ऊंचा उठाया हुआ धार्मिक भावावेग नहीं है और न इन सब उत्तम वस्तुओंका सम्मिश्रण ही है । एक मानसिक विश्वास, धर्म था मत, भावुकता-भरी अभीप्सा, धार्मिक या नैतिक नियमोंके अनुसार जीवनका नियंत्रण आध्यात्मिक उपलब्धि या अनुभूति नहीं है । मन और प्राणके लिये ये चीजों काफी मूल्यवान् हैं । स्वयं आध्या- त्मिक विकासके लिये भी इनका यह मूल्य है कि ये प्रकृतिको तैयार करने, संयत करने या उपयुक्त रूप देनेवाली क्रियाएं हैं, फिर भी ये मानसिक विकासकी चीजों हैं, -- इनमें अभीतक आध्यात्मिक उपलब्धि, अनुभूति और परिवर्तनका आरंभ नहीं हुआ है । अपने सार रूपमें आध्यात्मिकता है अपनी सत्ताके आंतरिक सत्यके प्रति, उस आत्मा, अंतरात्माके प्रति जागरण जो हमारे मन, प्राण, शरीरसे भिन्न है, उसे जानने, अनुभव करने, वही बन जानेकी आंतरिक अभीप्सा, उस महत्तर परम सत्ताके साथ नाता जोड़ना और उसके साथ संबंध रखते हुए एक हो जाना जो हमारे अंदर भी निवास करती है, सारे विश्वमें व्याप्त है और इस सबके परे भी, और इस अभीप्सा, संपर्क और ऐक्यके परिणामस्वरूप हमारी सारी सत्ताका घुमाव, परिवर्तन या रूपांतर, एक नयी संभूति, नयी सत्ता, नयी आत्मा और नयी प्रकृतिमें अभिवृद्धि था जागरण ।''
('लाइफ डिवाइन', पृ० ट'अ६६-५(७)
असलमें, जबतक संदेह या हिचकिचाहट रहती है, जबतक तुम यह जाननेके लिये अपने-आपसे प्रश्न करते हों कि शाश्वत आत्मासे तुम्हारा साक्षात्कार हुआ है या नहीं, तबतक यह प्रमाणित होता है कि सच्चा संपर्क अभीतक नहीं हो पाया है । क्योंकि, जब यह अद्भुत घटना घटती है तो वह अपने
३१० साथ ऐसा ''कुछ'' लें आती है जो इतना अनिर्वचनीय, इतना नवीन ओर इतना अनिर्वचनीय होता है कि शंका या प्रश्नकी गुंजायश ही नहीं रूह जाती । यह सचमुच, इस शब्दके पूरे-पूरे अर्थोंमें, नव-जन्म होता
तुम एक नये व्यक्ति बन जाते हों, और चाहे जो मार्ग हो या बादके मार्गकी जो भी कठिनाइयां हों, वह अनुभूति तुम्हें कारी नहीं छोड़ती । यह दूसरी बहुत-सी अनुभूतियोंकी तरह वैसी चीज नहीं है जो पीछे हट जाती है, पृष्ठभूमिमें चली जाती है, जो तुममें बाहरी रूपमें एक धुंधली स्मृति छोड़ जाती है जिसे पकड़े रहना कठिन हो जाता है, जिसकी याद फीक पड जाती है, मलिन हों जाती है, नहीं, यह ऐसी नहीं है । ' तुम नये व्यक्ति बन जाते हो, और निश्चित रूपसे वही रहते हों चाहे कुछ मी क्यों न हो जाय । और मनकी सारी अक्षमताएं, प्राणकी सारी कठिनाइयां, शरीरका सारा तम मी इस नयी स्थितिको नहीं बदल सकता, यह नयी स्थिति जो चेतनाके जीवनमें एक निर्णायक काट लाती है । पहले- की सत्ता और बादकी सत्ता एक जैसी नहीं रह जाती । विश्वमें तुम्हारी स्थिति और उसके साथ संबंध, जीवनमें स्थिति और उसके साथ संबंध, समझनेकी अवस्था और उसके साथ संबंध वही नहीं रह जाते : वास्तविक विपर्यय या उलटाव है जिसे कभी मिटाया नहीं जा सकता । इसलिये जब लोग मुझसे कहते हैं : ''मैं जानना चाहता हू कि मैं' अपनी आत्माके संपर्कमें हू या नही,'' तो मैं उनसे कहती हू : ''यदि तुम यह प्रश्न करते हो तो यही इस बातको प्रमाणित करनेके लिये काफी है कि आत्माके साथ तुम्हारा संबंध नहीं है । तुम्हें इसके उतरकी जरूरत नहीं, क्योंकि तुम खुद ही उसका उत्तर दे रहे हों ।'' जब वह होता है तो बस होता है, फिर सब खतम, इसके अलावा और कुछ नहीं रह जाता ।
और चूंकि हम उसके बारेमें बात कर रहे है तो मैं तुम्हें उस बातकी याद दिलाती चलूं जो श्रीअरविन्दने कही है, दोहरायी है, लिखी है, दावेके साथ कही है और बार-बार कही है, यानी, उनके योगका, पूर्ण योगका प्रारंभ इस अनुभूतिके बाद ही हो सकता है, उसके पहले नहीं ।
अतः, इस कल्पना और अमको मत पोस कि यह अनुभूति होनेसे पहले कोई यह जानना शुरू कर सकता है कि अतिमानस क्या है, और इसके बारेमें कोई धारणा बना सकता है, चाहे वह कितनी मी छोटी क्यों न हों ।
इसलिये, यदि कोई इस पथपर आगे बढ़ना चाहता है तो पहले बड़ी विनम्रतासे इस नव-जन्मकी राहपर चल पड़ना चाहिये, और अतिमानसिक
३११ अनुभूतियां प्राप्त कर सकनेके भ्रमको पोसनेके पहले आत्माका साक्षात्कार करना चाहिये ।
तुम्हें दिलासा देनेके लिये मैं इतना कह सकती हू कि तुम्हारे इस समय धरतीपर जीनेके तथ्य-भरसे -- चाहे तुम इसके बारेमें सचेतन होओ या नहीं, चाहे तुम इसे चाहो या नहीं -- तुम हर सांसके साथ इस नये अतिमानसिक तत्त्वको आत्मसात् कर रहे हो, जो इस समय पार्थिव वायुमंडलमें फैल रहा है । और वह तुम्हारे अंदर उन वस्तुओंको तैयार कर रहा है जो तुम्हारे निर्णायक कदम उठाते ही एकदम एकाएक अभिव्यक्त होंगी ।
(मौन)
यह तुम्हें कदम उठानेमें मदद करेगा या नहीं, यह दूसरी बात है जिसका अध्ययन करना शेष है, क्योंकि जो अनुभूतियां होती हैं, और जो अब बार- बार होंगी वे बिलकुल नये ढंगकी होंगी, क्या होने जा रहा है यह पहलेसे ही नहीं जाना जा सकता; अध्ययन करना होगा, और गहरे अध्ययनके बाद ही निश्चयके साथ कहा जा सकेगा। कि यह अतिमानसिक तत्व नव- जन्मके कार्यको आसान बनायेगा या नही.. । मैं तुम्हें इसके बारेमें कुछ समय बाद बताऊंगी । फिलहाल, अधिक अच्छा होगा कि इन वस्तुओंपर निर्भर न रहो और सहज रूपसे आध्यात्मिक जीवनमें जन्म लेनेके मार्गपर चल पडो ।
जब तुम वहांतक पहुंच जाओगे तब वे सारे प्रश्न जो तुम्हारे अंदर उठते हैं, या तुम मुझसे पूछते हो, हल हों जायेंगे ।
जो भी हो, जीवनके प्रति तुम्हारी वृत्ति इतनी भिन्न हो जायगी कि तुम यह समझने लगोगे कि आध्यात्मिक रूपसे जीनेका क्या मतलब होता है । और तब, तुम एक बड़ी चीज भी समझ जाओगे, बहुत बड़ी चीज, कि बिना अहंके कैसे जिया जा सकता है ।
तबतक उसे कोई नहीं समझ सकता । सारा जीवन अहंपर इतना अधिक निर्भर है कि लगता है कि अहंमें या अहंके द्वारा न हो तो जीना या कुछ करना नितांत असंभव है । पर इस नव-जन्मके बाद तुम मुस्कराते हुए अहंको देख सकते हो और उससे कह सकते हो : ''मेरे दोस्त, अव मुझे तुम्हारी कोई जरूरत नहीं रही! ''
यह भी उन परिणामोंमेसे एक परिणाम है जो तुम्हें मुक्तिकी काफी निश्चयात्मक अनुभूति प्रदान करता है ।
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